त्याग का अर्थ है छोड़ना , राग , द्वेष , ईर्ष्या , अहंकार आदि दोषों को छोड़ना ही त्याग है : ब्रह्मचारी श्री राजेश जी

भारतीय संस्कृति में त्याग की महिमा युवा विद्वान बाल ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली . त्याग धर्म की महिमा बहुत अपूर्व है । त्याग धर्म चोरी के अभाव से प्रकट होता है । जो साधु स्वादिष्ट भोजन का त्याग करता है , शरीर से निर्ममत्व रहता है तथा पीछी , कमण्डल , शास्त्र आदि उपकरणों में राग – द्वेष नहीं करता है एवं वसतिका से भी ममत्व रहित होता है , ऐसे साधु के जीवन में उत्तम त्याग धर्म होता है । गुणों को ग्रहण करना और दोषों का त्याग करना ही धर्म है । गुणों में आचरण करने से अधर्म छूट जाता है । त्याग का अर्थ है छोड़ना , राग , द्वेष , ईर्ष्या , अहंकार आदि दोषों को छोड़ना ही त्याग है । त्यागधर्म , धर्म की पराकाष्ठा है । जैन संस्कृति के अलावा अन्य धर्म एवं सम्प्रदायों में भी त्याग का महत्व बताया गया है । भारतीय संस्कृति में त्याग की महिमा है । त्याग धर्म का पालन संयत जीवन में ही होता है । संयत जीवन का अर्थ है सम्पूर्ण भौतिक पदार्थों में या परिवार के फैलाव में मोह , राग का त्याग करना । अंतर में अनंत शक्तियों का स्रोत छिपा हुआ है । आत्मा अनंत गुणों का भंडार है । त्याग में बहुत बल है , आत्म शक्तियों की प्रगटता त्याग से ही होती है । संग्रह- संवर्धन और परिग्रह मात्र का विमोचन ही त्याग है । शरीर – संसार – भोगों से विरक्तिपूर्वक अपनी आत्मा में ठहरना त्याग की सार्थकता है । त्याग , सर्वस्व को छोड़ना है , जबकि दान , अंश का त्याग है । त्याग आत्मशुद्धि है । दान , शुद्धि का साधन पुण्योपार्जन है । जिसमें आहारदान , ज्ञानदान , औषधिदान और अभयदान की प्रमुखता से करुणादान में अपनत्व – वात्सल्य को भी समाहित किया गया है । संक्षेप में कहें तो जिससे – आत्मा , शरीर , परिवार , समाज , राष्ट्र का अहित होता है , उन सभी कर्म , कार्य और अव्यवहारिकता का त्याग करें । त्याग धर्म से आत्म – शान्ति , परिवार – शान्ति , समाज – शान्ति एवं राष्ट्र संप्रभुता की वृद्धि होती है । सोलहवीं शताब्दी में हुए श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने श्री ममलपाहुड जी में उत्तम त्याग धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है- पर पर्याय का देखना , मानना , छूट जाना उत्तम त्याग धर्म है , इससे भय , शल्य , शंकायें स्वयं ही विला जाती हैं , आंतरिक विकारों का छूट जाना त्याग धर्म है । मनुष्य बाहर से घर छोड़ता है किन्तु घर के प्रति जो आसक्ति है , उसका त्याग नहीं करता है । बाहर से विषयों का त्याग तभी सच्चा होता है , जबकि अंतर में उनके प्रति रसबुद्धि का अभाव हो जाये यही त्याग सच्चा त्याग है । ग्रन्थ त्याग धर्म है और दान पुण्य है , त्याग वस्तु को अहितकारी और अनुपयोगी जानकर किया जाता है , जबकि दान उपयोगी और हितकारी वस्तुओं का दिया जाता है । स्व – पर के हित के अभिप्राय से अपनी उपयोगी वस्तु पात्र जीव को देना दान है । दान का स्वरूप बताते हुए आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है – ‘ अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानं ‘ अर्थात् स्व – पर के कल्याण , उपकार की भावना से धनादि अपनी वस्तु को देना दान है , जहाँ एक ओर रागादि भावों के त्याग को त्याग धर्म कहा है , वहीं यह त्याग धर्म दान के रूप में ज्ञानदान , आहारदान , औषधिदान और अभयदान के रूप में परिणत होता है । वेदों में कहा गया है कि लक्ष्मी – रथ के पहिया में लगे हुए आरे की तरह चंचल है , यह स्थिर नहीं रहती इसलिये सौ हाथ से कमाओ और हजार हाथों से बांटो । पानी बाढ़े नाव में , घर में बाढ़े दाम । दोनों हाथ उलीचिये , यही सयानो काम । जहाँ दिया ‘ है वहीं उजाला है ।

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