पिज्जा के आठ टुकड़े जो जीवन का अर्थ समझा गए

पिज्जा के आठ टुकड़े : आठ साल पहले लिखी गई एक सशक्त लघुकथा (साभार)…

एक दिन मेरी पत्नी ने मुझसे कहा, “आज धोने के लिए ज्यादा कपड़े मत निकालना।”

“ऐसा क्यों?” मैंने पूछा।

“अपनी काम वाली बाई दो दिन नहीं आएगी।”

“वह क्यों?”

“वह बोल रही थी कि गणपति के लिए अपने नाती से मिलने बेटी के यहाँ जा रही है।”

“ठीक है, मैं अधिक कपड़े नहीं निकालूँगा,” मैंने पत्नी को आश्वस्त किया।

फिर पत्नी ने मुझसे पूछा, “और हाँ! गणपति के लिए पाँच सौ रुपए दे दूँ उसे? त्यौहार का बोनस…”

मैंने कहा, “क्यों? अभी दिवाली आ ही रही है, तब दे देंगे न?”

“अरे नहीं बाबा! गरीब है बेचारी, बेटी-नाती के यहाँ जा रही है, कुछ अतिरिक्त पैसे साथ में होंगे तो उसे भी अच्छा लगेगा। इस महँगाई के दौर में अपनी पगार से त्यौहार कैसे मनाएगी बेचारी?”

मैंने उसे समझाने की कोशिश की, “तुम भी ना… जरूरत से ज्यादा ही भावुक हो जाती हो…”

“अरे नहीं… चिंता मत करो… मैं आज का पिज्जा खाने का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ… खामख्वाह पाँच सौ रुपए उड़ जाएँगे, बासी पाव के उन आठ टुकड़ों के पीछे…”

मैंने कहा, “वाह, क्या कहने!! हमारे मुँह से पिज्जा छीनकर बाई की थाली में??”

तीन दिन बाद, पोंछा लगाती हुई कामवाली बाई से मैंने पूछा, “क्या बाई? कैसी रही छुट्टी?”

“बहुत बढ़िया रही साहब। दीदी ने पाँच सौ रुपए दिए थे न, त्यौहार का बोनस, इसलिए सब कुछ बहुत ही अच्छे से हो गया।”

“-तो जाकर हो आयी बेटी के यहाँ से? मिल ली अपने नाती से?”

“हाँ साब… मिल लिया, बहुत मजा आया। मैंने दो दिन में ही 500 रुपए खर्च कर दिए।”

“अच्छा! मतलब क्या किया 500 रुपए का?”

“नाती के लिए 150 रुपए का शर्ट, 40 रुपए की गुड़िया, बेटी के लिए 50 रुपए के पेड़े लिए, 50 रुपए के पेड़े मंदिर में प्रसाद चढ़ाया, 60 रुपए किराए के लग गए, 25 रुपए की चूड़ियाँ बेटी के लिए और जमाई के लिए 50 रुपए का बेल्ट लिया, बहुत अच्छा सा… बचे हुए 75 रुपए नाती को दे दिए कॉपी-पेन्सिल खरीदने के लिए।” झाड़ू-पोंछा करते हुए पूरा हिसाब उसकी ज़बान पर रटा हुआ था।

सुनकर मैं अवाक रह गया और सोचने लगा केवल 500 रुपए में कितना कुछ कर लिया इसने? मेरी आँखों के सामने आठ टुकड़ों में काटा हुआ बड़ा सा पिज्जा घूमने लगा। एक-एक टुकड़ा मेरे दिमाग में हथौड़ा मारने लगा। मैं अपने एक पिज्जा के खर्च की तुलना कामवाली बाई के त्यौहारी खर्च से करने लगा।

मेरा भी हिसाब बिलकुल दुरुस्त था। पिज्जे का पहला टुकड़ा बच्चे की ड्रेस का, दूसरा टुकड़ा पेड़े का, तीसरा टुकड़ा मंदिर का प्रसाद, चौथा किराए का, पाँचवाँ गुड़िया का, छठवां टुकड़ा बेटी की चूड़ियों का, सातवां जमाई के बेल्ट का और आठवां टुकड़ा बच्चे की कॉपी-पेन्सिल का।

मैंने आज तक हमेशा पिज्जा की एक ही बाजू देखी थी, कभी उसे पलटकर नहीं देखा था कि पिज्जा पीछे से कैसा दिखता है। लेकिन आज कामवाली बाई ने मुझे पिज्जा की दूसरी बाजू दिखा दी थी। पिज्जा के आठ टुकड़े मुझे जीवन का अर्थ समझा गए थे: “जीवन के लिए खर्च” या “खर्च के लिए जीवन” का नवीन अर्थ एक झटके में मुझे समझ में आ गया।

आप भी एक दिन अपना पिज्जा (या अन्य खाद्य पदार्थ) छोड़कर किसी का भला कर के देखिए…. पिज्जा खाने से ज्यादा आनन्द न आए तो कहना….
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आप सभी का दिन शुभ हो 🙏🏻😊

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