वह चाल चल कि जिंदगी इज्जत से कटे तेरी :ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली

ऊर्जा के रूपांतरण से महाक्रांति- ब्रह्मचर्य परम धर्म है . युवा विद्वान बाल ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली  . संसार में हिंसा , झूठ , चोरी , अब्रह्म , परिग्रह आदि लोकनिंद्य कार्यों को पाप कहते हैं । पाप दुःख के कारण होते हैं । पाप करते हुए कोई भी जीव सुखी नहीं हो सकता । आचार्य श्री उमास्वामी जी ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में लिखा है पाप ही दुःख है । पापों से अरुचि होने पर ही जीवन में धर्म का प्रारम्भ होता है । अहिंसा , सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह सभी वर्गों के लिये समान रूप से धर्म कहे गये हैं । सद्गुणों में आचरण होना ही धर्म का आचरण है । उत्तम क्षमा , मार्दव , आर्जव , सत्य , शौच , संयम , तप , त्याग , आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य यह धर्म के दसलक्षण कहे गये हैं । धर्म के दस ही लक्षण होने का क्या कारण है ? यह जिज्ञासा हर जिज्ञासु के मन में पैदा होती है । उसका समाधान यह है कि क्रोध , मान , माया , लोभ , हिंसा , झूठ , चोरी , कुशील , परिग्रह और एक इच्छा इस प्रकार यह चार कषाय , पाँच पाप और एक इच्छा , संसार में परिभ्रमण कराने वाले यह दस कारण ही मुख्य हैं । इन दस विकारों का अभाव होने पर दसलक्षण धर्म प्रकट होते हैं । धर्म के दस लक्षणों में अंतिम उत्तम ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य का पालन करना परम धर्म है । अब्रह्म पाप के अभाव से ब्रह्मचर्य धर्म प्रकट होता है । अब्रह्म सब पापों की जड़ है । मन इन्द्रियों का राजा है । मन की आज्ञानुसार इन्द्रियाँ अपने – अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं । काम विकार मनुष्य के मन का ऐसा विकार है , जो मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है । श्रीमद् भगवद् गीता में श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहा है – विषयों का ध्यान करने से पुरुष के मन में विषयों के प्रति आसक्ति पैदा हो जाती है । आसक्ति से विषय प्राप्त करने की कामनायें पैदा हो जाती हैं , कामना से क्रोध उत्पन्न होता है , क्रोध से सम्मोह भाव हो जाता है , सम्मोह से स्मृति नष्ट हो जाती है , स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से व्यक्ति का पूर्णत : नाश हो जाता है । ब्रह्मचर्य सारे व्रतों में श्रेष्ठ व्रत है । संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कहा है -बिनु संतोष न काम नसाहीं , काम अछत सुख सपनेहुं नाहीं । इस प्रकार संतोष भाव पूर्वक काम विकार पर विजय प्राप्त करना व्यवहार से ब्रह्मचर्य व्रत है । निश्चय से अपने ब्रह्म स्वरूप में आचरण करना ही ब्रह्मचर्य है । इससे शाश्वत पद की प्राप्ति होती है । ब्रह्म स्वरूप का दर्शन करने से जीव के हृदय की ग्रन्थि भिद जाती है , समस्त संशय नष्ट हो जाते हैं और कर्म भी क्षय को प्राप्त होते हैं , वही जीव मुक्ति को प्राप्त करता है । इसलिये कहा है कि वह चाल चल कि जिंदगी इज्जत से कटे तेरी । वह काम कर कि नाम तेरा सब लिया करें । हमारे देश की सदाचारपूर्ण संयम की मिशाल उपस्थित करने वाले अनेकों महापुरुष हुए हैं जिनमें महाराज छत्रसाल अपनी प्रजा के सुख – दुःख को जानने के लिये रात्रि में नगर भ्रमण के लिये निकले थे , मार्ग में काम विकार से पीड़ित एक महिला ने महाराज से प्रणय निवेदन करते हुए कहा कि मुझे आप जैसा पुत्र चाहिये । महाराज छत्रसाल ने अपनी महानता का परिचय देते हुए उस महिला से कहा कि मैं ही आज से आपका पुत्र हूँ । इस प्रकार के आदर्श चारित्र के कारण भारतीय संस्कृति का मस्तक सदैव उन्नत रहा है । महान संत आचार्य श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने ब्रह्मचर्य धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है अपने अरस अरूपी शुद्धात्मा अर्थात् देहातीत आत्मा , ब्रह्म स्वरूप में आचरण करना , ही ब्रह्मचर्य है । *****

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