लोभ व्यक्ति के सारे गुणों को नष्ट कर देता है श्री राजेश जी बरेली

लोभ पाप का बखाना , शुचिता धर्म है . 0४-०९ • युवा विद्वान बाल ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली  . शुचिता , पवित्रता का नाम शौच धर्म है । अपना आत्मा काम , क्रोध , मोह , लोभ आदि विकारों से अपवित्र हो रहा है , यही अशुचिता अधर्म है , जो मनुष्य के पतन का कारण है । चाहना मन की परिणति है , यही चाह जब बढ़ जाती है , तो लोभ और तृष्णा में बदल जाती है । जैसे – जैसे लाभ बढ़ता है , वैसे – वैसे लोभ बढ़ता जाता है । वही लोभ तृष्णा में बदल जाता है । लोभ सभी पापों का बाप है और मायाचारी सब पापों की माँ है । इन विकारों के कारण ही आत्म संस्कार मलिन होते जा रहे हैं । पवित्रता की दिव्य ज्योति , लोभ की रंग – बिरंगी छटा से दूर , अपने घर में प्रवेश करने का दिव्य द्वार ही शौच धर्म है । आचरण की पवित्रता से शौच गुण आता है । लोभ कषाय है का विमोचन और परम संतोष के विशाल आंगन में विराट धर्म का अवतरण होता है । सर्व – मैत्री विश्व बन्धुत्व की उदारता में आत्मीय मिलन तीर्थ निर्मित होता है । दिवाकर की शुचिता में लोभादि कषायों का सघन अंधकार स्वतः पलायन कर जाता है । और आत्मीय स्वागत हेतु दिव्य गुणों की वरमाला लिये मुक्ति वधु अपनी आत्मीय सखियों के संग आतुरता से खड़ी रहती है । शौच धर्म की महायात्रा से मानव महामानव बन जाता है । मन चाहनाओं से भरा हुआ है , उसकी इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होती , और मन की चाहनाओं को पूरा करने वाला व्यक्ति कभी मन को वश में नहीं कर पाता । मन जब वासनाओं से परिपूर्ण होता है , तब उस खाई की तरह होता है , जिसमें तीन लोक भी डाल दिये जाएँ तो तिनके के समान दिखाई पड़ते हैं । सांसारिक पदार्थों के संग्रह से मन कभी तृप्त नहीं हो सकता । यह लोभ ही अशुचिता है , इसे दूर करना ही पवित्रता है । भारत में सभी धर्म सभी वर्गों के लोगों के लिए समान रूप से अहिंसा , सत्य , अचौर्य , ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह , इन्द्रिय शुचिता आदि को धर्म कहा गया है । इसका अभिप्राय यह है कि धर्म किसी जाति , मत , पंथ , सम्प्रदाय में नहीं होता बल्कि आंतरिक विकारों को दूर कर आत्मिक पवित्रता को जाग्रत करना ही सच्चा धर्म है । भारत वह सोने की चिड़िया है जिसका मूल्यांकन अंतर और बाह्य की पवित्रता से किया जाता है । इन्द्रिय और मन की पवित्रता के बिना घट में ही व्याप्त परमात्मा के दर्शन नहीं होते । भगवान महावीर स्वामी ने निष्काम भाव को श्रेष्ठ कहा है , क्योंकि कामना बासना ही संसार की जड़ है । श्रीमद् भगवद् गीता में कृष्ण जी ने अर्जुन को निष्काम भाव की शिक्षा दी है । फल की इच्छा के बिना कर्म करना यह आध्यात्मिक जीवन जीने की अपूर्व ही कला है । लोभ इच्छाओं को जन्म देता है , और सभी इच्छाओं की पूर्ति होना सम्भव नहीं है । यही कारण है कि लोभ के कारण ही वर्तमान समाज में अनेकों बुराईयाँ पनप रही हैं । हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लोभी व्यक्तियों की वृत्ति पर व्यंग्य करते हुए लिखा है , ” लोभियों का दमन योगियों के दमन से किसी प्रकार कम नहीं होता , लोभ के बल से वे काम , क्रोध को जीतते हैं , और वासना का त्याग करते हैं । मान अपमान में समान भाव रखते हैं । श्रीमद् जिन तारण स्वामी ने कहा है कि संसारी जीव और मुनि के लोभ में कितना अंतर होता है , दोनों को लोभ होता है , परन्तु संसारी जीव का लोभ विषय वासनाओं की पूर्ति के लिए मन से जुड़ा होता है , और साधु मुनि सांसारिक लोभ को पूर्णतया त्याग कर शुद्ध धर्म में लीन रहने का लोभ करते हैं । क्रोध प्रीति को नष्ट करता है , मान विनय को नष्ट करता है , माया मित्रता को नष्ट करती है , परन्तु लोभ व्यक्ति के सारे गुणों को नष्ट कर देता है । अंतर में सावधान रहने वाला जीव ही विकारों से मुक्त हो सकता है ।

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