*सवाल कौन पूछेगा*
*लेखक – सुनील बोरसे, राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता*
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मूलचन्द मेधोनिया पत्रकार भोपाल
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भोपाल।
आज देश में बेरोजगारी चरम सीमा पर है।
युवा असमंजस में हैं कि रोजगार की तलाश कहाँ करें, कैसे करें। जो युवा किसी तरह नौकरी पा भी लेते हैं, वे मॉल, कॉल सेंटर, दुकानों या छोटी कंपनियों में मात्र ₹5000 से ₹7000 तक की तनख्वाह पर काम करने को मजबूर हैं — जहाँ न नौकरी की सुरक्षा है, न भविष्य की गारंटी।
जहाँ तक बात सरकारी नौकरियों की है, वहाँ भी युवाओं के साथ छलावा हो रहा है।
आउटसोर्सिंग के नाम पर युवाओं को ठगा जा रहा है। जहाँ आउटसोर्स कंपनियाँ प्रति कर्मचारी ₹18,000 से ₹25,000 तक का भुगतान पाती हैं, वहीं उस युवा को मात्र ₹10,000 से ₹12,000 मिलते हैं। और जैसे ही कंपनी का ठेका समाप्त होता है, नौकरी भी समाप्त कर दी जाती है।
फिर वही युवा रिश्वत और सिफारिश के चक्कर में नए रोजगार की तलाश में भटकता है।
यह सब जानते हुए भी सरकारें आउटसोर्स कंपनियों को लाभ पहुंचाती हैं, क्योंकि ये कंपनियाँ प्रायः नेताओं और बड़े अफसरों के रिश्तेदारों की होती हैं। परिणामस्वरूप, युवा घर में अपमानित, समाज में उपेक्षित और मानसिक तनाव में आकर नशे की गिरफ्त में चला जाता है।
ड्रग्स और शराब का चलन तेजी से बढ़ रहा है — यह केवल एक सामाजिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय संकट है।
करुणा कल का दृश्य याद कीजिए — मौत, मातम और भय से घिरा हुआ देश।
21-22 अप्रैल 2022 को कांडला दीनदयाल पोर्ट पर 260 किलो हेरोइन बरामद हुई, जिसकी कीमत करीब ₹1300 करोड़ बताई गई। लेकिन आज तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि उस कंटेनर का मालिक कौन था। क्या यह केवल एक अपराध था, या किसी बड़ी साजिश का हिस्सा? ऐसा प्रतीत होता है कि देश के कुछ बड़े उद्योगपति और राजनीतिक प्रभावशाली लोग इसमें शामिल हैं — फिर भी जांच अधूरी है, जवाब कोई नहीं देता।
ड्रग्स का ज़हर पंजाब, दिल्ली, महानगरों और अब भोपाल तक फैल चुका है।
परन्तु देश के “चौकीदार” जनता का ध्यान भटकाने के लिए धर्म और जाति के नाम पर विभाजन की राजनीति कर रहे हैं।
जो युवा नशे में नहीं फंसे हैं, उन्हें धर्म के नशे में डुबोया जा रहा है।
कभी धर्म खतरे में बताकर, कभी बाबाओं को आगे रखकर — युवाओं की असली समस्या बेरोजगारी को भुलाया जा रहा है।
आज बेरोजगार युवाओं को त्योहारों पर मूर्तियाँ लगाने, चंदा जुटाने, डीजे बजाने या कांवड़ यात्रा में झूमने तक सीमित कर दिया गया है। वहीं राजनीतिक दल उनके उत्साह को वोटों में बदलने का खेल खेल रहे हैं। युवा भूल चुका है कि उसकी असली लड़ाई रोजगार और सम्मानजनक जीवन के लिए है।
कल मेरी बातचीत मेजर प्रभाकर साहब से हुई।
वे बहुत व्यथित थे। उन्होंने मुझसे पूछा —
“युवाओं के बारे में कौन सोचेगा?
और सरकार से बेरोजगारी का सवाल कौन पूछेगा?”
उनकी यह बात मेरे भीतर गूंज उठी।
यह सचमुच बड़ा सवाल है — सवाल कौन पूछेगा?
क्या बुद्धिजीवी? क्या राजनेता?
क्या विपक्ष? या हम स्वयं?
मैंने निश्चय किया कि मैं यह सवाल स्वयं पूछूँगा —
सरकार से, समाज से, और अपने आप से।
क्योंकि जब तक हम सवाल नहीं पूछेंगे, जवाब कोई नहीं देगा।
यह लेख मैंने वेदना और आत्ममंथन से लिखा है।
इसका उद्देश्य केवल आलोचना नहीं, बल्कि युवाओं को जागरूक, संगठित और सही राह पर लाने का आह्वान है।







