भौतिकता के प्रवाह में बहाव होने का दुष्परिणाम बाल ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली

 युवा विद्वान बाल ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली प्रेषक सुनीलकुमार जैन , घोड़ाडोंगरी ( बैतूल ) म.प्र . भारतीय संस्कृति की आदर्श परम्परा भारतीय संतों का आदर्श उनका तपमय जीवन है । प्राचीनकाल से ही तपस्या के द्वारा महापुरुषों ने भारत की आध्यात्मिक परम्परा को गौरवान्वित किया है । इच्छा निरोधः तपः अर्थात् इच्छाओं का निरोध करना तप है । जो पाँच इन्द्रिय और विषयों की आशा से रहित हैं , आरम्भ और परिग्रह से रहित हैं , ज्ञान , ध्यान और तप में लीन हैं वे तपस्वी ही प्रशंसनीय हैं । समस्त रागादि विकारी भावों का त्याग करके अपने आत्म स्वरूप में लीन होना तप है अथवा आत्म लीनता द्वारा विकारों पर विजय प्राप्त करना तप है । मनुष्य का शरीर एक आध्यात्मिक रथ है , जिसमें निवास कर रहा आत्मा रथवान है , बुद्धि उसका सारथी है , इस रथ को पाँच ज्ञान इन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय इन दस इन्द्रियों के घोड़े खींच रहे हैं , मन इसकी लगाम है , यह रथ इन्द्रियों के विषयों की सड़क पर दौड़ रहा है । जिस आत्मा का बुद्धि रूपी सारथी जाग्रत रहेगा और मन की लगाम को खींचकर रखेगा उसकी इन्द्रियाँ वश में रहेंगी तथा जिस जीवात्मा का बुद्धि रूपी सारथी सजग सावधान नहीं रहेगा और मन की लगाम को ढीली छोड़ देगा , उस आत्मा के रथ को यह इन्द्रिय रूपी घोड़े कहाँ ले जाकर गिरायेंगे और आत्मा की क्या गति होगी , यह सब विचार करके जीवन को संयम तपमय बनाना ही श्रेयस्कर है । तप से जीवन में निखार आता है , मन वश में होता है और आत्मा की कर्म कालिमा छूट जाती है और जीवन के सभी पाप बह जाते हैं । तप से आत्मा को शाश्वत पद की प्राप्ति का मार्ग बन जाता है । सोलहवीं शताब्दी में हुए महान संत श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने मन को वश में करने के लिये उपाय बताते हुए श्री ममलपाहुड ग्रन्थ में कहा है ‘ न्यान डोरि मन राषियो बिजौरोदे ‘ अर्थात् ज्ञान की डोरी मन में रखो , भेदज्ञान , तत्त्वनिर्णय का निरंतर चिंतन – मनन करो , यह मन को वश में करने का उपाय है । भौतिकता के प्रवाह में बहाव होने का दुष्परिणाम आज हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं । पाश्चात्य संस्कृति के लोग भौतिक संसाधनों के बाह्य सुखों से ऊबकर भारत के अध्यात्म से अपने अंतर की शांति को प्राप्त करना चाहते हैं किन्तु आश्चर्य है कि अध्यात्म के रंग में डूबे हुए भारत के लोग अपने आध्यात्मिक वैभव को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होकर दिनोंदिन विषय प्रपंचों में उलझते जा रहे हैं । सोलहवीं शताब्दी में हुए महान संत श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने श्री ममलपाहुड जी ग्रन्थ में तप धर्म का स्वरूप बताते हुए कहा है आत्मा में लीन होता ही तप है । महात्मा बुद्ध ने कहा है कि जिस प्रकार कोई पुष्प मनमोहक , सुंदर वर्णवान है किन्तु गंध रहित है , इसी प्रकार चर्चायें बहुत उत्कृष्ट हों किन्तु आचरण रहित हों अर्थात् चर्चा के अनुरूप चर्या न हो तो वह चर्चा निष्फल है । श्रीमद् भगवद्गीता में अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से पूछा कि हे कृष्ण ! यह मन अत्यंत चंचल है । सारे संसार का मथन कर देने वाला है , इसको वश में करना मुझे ऐसा प्रतीत होता है , जैसे वायु को वश में करना कठिन है । श्रीकृष्ण जी ने कहा हे महाबाहो ! तुम ठीक कहते हो , निश्चय ही यह मन बहुत चंचल है और बहुत दुर्लभता से वश में होता है , किन्तु हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य से इस चंचल मन को वश में किया जाता है । तप करने वाले योगी कोई विरले ही होते हैं इसलिये संत कबीरदास जी ने कहा है – मन सब पर असवार है , पैंड़े करे अनेक । जो मन पर असवार हैं , सो कोई विरला एक । वस्तुत : मन पर विजय कर लेना ही तप साधना का मूल है । यही सम्यक् तप भारतीय संतों का आदर्श है ।

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