डिलिस्टिंग अभियान आदिवासी समाज की हक की लड़ाई है-संजीव रॉय

 

जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले डिसलिस्टिंग की मांग जबरदस्त तरीके से मप्र के जनजाति बाहुल्य क्षेत्र में अपना प्रभाव निर्मित कर रही है। जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले घोड़ाडोंगरी विकास खण्ड के गांव-गांव में इस सम्बंध में बैठक का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें क्षेत्र के जनप्रतिनिधि के साथ-साथ जनजाति समाज के सामाजिक कार्यकर्तायो का समर्थन मिल रहा है।आने वाले 10 जनवरी को घोड़ाडोंगरी में जनजाति समाज डिलिस्टिंग के पक्ष में शक्ति प्रदर्शन करने के लिए रैली एवं जन सभा करने की योजना बनाई है,जिसमे घोड़ाडोंगरी ब्लाक के सभी जनजाति ग्राम से हजारों की संख्या में उपस्थित होकर रैली निकलने की योजना है।

*डिलिस्टिंग मतलब क्या?*
जनजाति समाज में डिलिस्टिंग के पक्ष में जबरदस्त जन अभियान शुरू हो गया है। ये संवैधानिक औऱ जनजातीय परम्पराओं के अनुकूल भी है।असल में जनजाति वर्ग को विशेषाधिकार संविधान में उनके पिछड़ेपन औऱ समग्र सशक्तिकरण के लिए सुनिश्चित किये गए है।इसका आधार विशुद्ध रूप से जनजाति पहचान है।धार्मिक आधार पर संविधान किसी तरह के आरक्षण की व्यवस्था को स्पष्टता निषिद्ध करता है।डिलिस्टिंग का मामला इसी संवैधानिक प्रावधान की बुनियाद पर खड़ा है।जिसे अनुच्छेद 341 एवं 342 में परिभाषित किया गया है।

भारतीय संविधान धार्मिक आधार पर किसी भी विशेषाधिकार को निषिद्ध करता है इसलिए जो लोग आदिवासी संस्कृति,परम्परा,संस्कार एवं धर्म छोड़ चुके है उन्हें जनजाति का सरंक्षण असंवैधानिक है। संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति और 342 में जनजाति के सरंक्षण एवं आरक्षण का प्रावधान किया गया था। 1956 में अनुसूचित जाति प्रावधान में डिलिस्टिंग जोड़ दिया गया यानी कोई भी अजा सदस्य अपनी पहचान छोड़कर अन्य धर्म मे जाता है तो उसे 341 के सरंक्षण से वंचित होना पड़ता है। लेकिन जनजाति मामले में 342 पर अभी तक ऐसा प्रावधान नही जोड़ा गया।इसी का फायदा उठाकर देश भर में मिशनरीज औऱ जिहादी तत्वों ने कन्वर्जन का पूरा तंत्र खड़ा कर लिया है।प्रान्त जनजाति हितरक्षा सदस्य संजीव रॉय ने कहा की
बाबा कार्तिक उरांव ने 1967 में पेश किया था डिलिस्टिंग प्रस्ताव
डिलिस्टिंग का मुद्दा आज का नही है।देश के पूर्व नागरिक उड्डयन एवं संचार मंत्री रहे कार्तिक उरांव ने 70 के दशक में ही इस पहचान के संकट को समझ लिया था। कार्तिक उरांव अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। 1967 में उन्होने कांग्रेस की टिकट पर लोहरदगा (झारखंड)से चुनाव लड़ा और सांसद बने। 1977 की जनता लहर का अपवाद छोड़ दें, तो अपनी मृत्यु (1981) तक वे लोहरदगा का प्रतिनिधित्व लोकसभा में करते रहे। 8 दिसंबर 1981 को संसद भवन में ही दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई।
1969 में संसदीय समिति डिलिस्टिंग की अनुशंसा कर चुकी है
उरांव वनवासियों के ईसाई कन्वर्जन से क्षुब्ध थे। इसलिए 1967 में संसद में उन्होने अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक प्रस्तुतकिया। इस विधेयक पर संसद की संयुक्त समिति ने बहुत छानबीन की और 17 नवंबर 1969 को अपनी सिफारिशें दीं। उनमें प्रमुख सिफारिश यह थी कि कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और अन्य धर्म ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।
अर्थात कन्वर्जन करने के पश्चात उस व्यक्ति को अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। संयुक्त समिति की सिफारिश के बावजूद, एक वर्ष तक इस विधेयक पर संसद में बहस ही नहीं हुई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर मिशनरिस का जबरदस्त दबाव था कि इस विधेयक का विरोध करें। मिशनरिस के प्रभाव वाले 50 संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी को पत्र दिया कि इस विधेयक को खारिज करे।348 सांसदों की मांग को इंदिरा गांधी ने
खारिज कर दी थी ।
कांग्रेस में रहते हुए इस मुहिम के विरोध में अपने राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाकर कार्तिक उरांव ने 322 लोकसभा सदस्य और 26 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षरों का एक पत्र इंदिरा गांधी को दिया, जिसमें यह जोर देकर कहा गया था की वे विधेयक की सिफारिशों का स्वीकार करें, क्योंकि यह तीन करोड़ आदिवासियों के जीवन – मरण का प्रश्न हैं। किंतु मिशनरियों का एक प्रभावी अभियान पर्दे के पीछे से चल रहा था।नतीजतन विधेयक ठंडे बस्ते में पटक दिया गया। लॉबी के आगे झुकी रही सरकार
16 नवंबर 1970 को इस विधेयक पर लोकसभा में बहस शुरू हुई। इसी दिन नागालैंड और मेघालय के मुख्यमंत्री दबाव बनाने के लिए दिल्ली पहुंचे। मंत्रिमंडल में दो इसके विरोध में राज्यमंत्री थे। उन्होंने भी दबाव की रणनीति बनाई। इसी के चलते 17 नवंबर को सरकार ने एक संशोधन प्रस्तुत किया की संयुक्त समिति की सिफारिशें विधेयक से हटा ली जाय।लोकसभा में बहस को
इंदिरा गांधी ने बीच मे रुकवा दी ,
बहस के दिन सुबह कांग्रेस ने एक व्हीप अपने सांसदों के नाम जारी किया, जिसमें इस विधेयक में शामिल संयुक्त समिति की सिफारिशों का विरोध करने को कहा गया था। कार्तिक उरांव, संसदीय संयुक्त समिति की सिफारिशों पर 55 मिनट बोले। वातावरण ऐसा बन गया, की कांग्रेस के सदस्य भी व्हीप के विरोध में, संयुक्त समिति की सिफारिशों के समर्थन में वोट देने की मानसिकता में आ गए।अगर यह विधेयक पारित हो जाता, तो वह एक ऐतिहासिक घटना होती..! स्थिति को भांपकर इंदिरा गांधी ने इस विधेयक पर बहस रुकवा दी और कहा की सत्र के अंतिम दिन, इस पर बहस होगी। किंतु ऐसा होना न था। 27 दिसंबर को लोकसभा भंग हुई और कांग्रेस द्वारा आदिवासियों के कन्वर्जन को मौन सहमति मिल गई!जिसका परिणाम है कि मूल जनजाति आदिवासी समाज का हक अन्य धर्म के लोग जो कन्वर्जेंस हो चुके लोग उठा रहे है इसलिए डिलिस्टिंग के इस माह अभियान में जनजाती समाज के प्रत्येक घर से युवा जुड़े और जनजाति सुरक्षा मंच के बैनर तले इस अभियान को सफल बनाने में अपना योगदान दे।
10 जनवरी की घोड़ाडोंगरी के रैली में घर घर से युवा जुड़े और अपना हक की लड़ाई में शामिल हो।

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