paryushan festival महावीर , गांधी , बिनोवा की धरती पर खून की नदियां बह रही हैं युवा विद्वान बाल ब्रह्मचारी राजेश जी बरेली

युवा विद्वान बाल ब्रह्मचारी श्री राजेश जी बरेली संयम से जीवन सुगंधित होता है , उत्तम संयम धर्म एक मात्र आत्म शांति एवं कल्याण का सोपान है । भारतीय संस्कृति संयम , तप प्रधान है । श्री जिन तारण स्वामी ने संयम का स्वरूप बताते हुए कहा है ‘ संजम मन संजमन ‘ अर्थात् मन को संयमित करना संयम है । मन को वश में रखना और इन्द्रियों के विषयों प्रवृत्ति को रोकना संयम है । भारत संत भूमि है , संत सत्पुरुषों ने अपने जीवन को संयम मय बनाया और जगत के समस्त जीवों को संयम पूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा दी है । पूर्ण रूप से असंयम , असावधानी , पाप का त्याग संयम है । पाँच इन्द्रिय और मन को जीतकर , स्थावर- त्रस जीवों को अपने समान समझकर रक्षा करना संयम है । बाहर से हटकर अपने भीतर रहने का साधन संयम है । स्वतंत्रता की घोषणा और पराधीनता से मुक्त होने का मार्ग संयम है । पाप विषय कपाय आदि निंद्य कार्यों एवं भावों का त्याग करना ही संयम है । प्राचीनकाल में संयम , तप और आध्यात्मिक गरिमा के कारण ही भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था । सोलहवीं शताब्दी में हुए महान अध्यात्मवादी संत श्री तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने कहा है ” जो जीव संयम का पालन करते हैं वे आत्म दर्शन के अधिकारी होते हैं । ” भगवान महावीर , बुद्ध , संत तारण स्वामी , संत तुलसीदास , कबीरदास आदि सभी संतों ने अहिंसा को परम धर्म कहा है । यजुर्वेद में भी जीव मात्र की रक्षा करने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है कि प्राणी मात्र पर दया भाव रखो । यह हमारी संत परम्परा और अहिंसक संस्कृति की विशेषता है । इसी गरिमामय परम्परा के कारण हमारा देश विश्व में निरन्तर गौरवान्वित रहा है , किंतु अहिंसा धर्म के विपरीत , देश की अहिंसक संस्कृति के खिलाफ आज पशु धन का सत्यानाश किया जा रहा है , जगह – जगह बूचड़खाने खुलने से महावीर , गांधी , बिनोवा की धरती पर खून की नदियां वह रही हैं । गौवंश नष्ट हो रहा है । जिस धरती पर किसी समय में दूध और घी की नदियाँ वहा करती थीं वहां आज कत्लखानों की घिनौनी वृतियाँ हमारे अहिंसा परम धर्म की चर्चा पर प्रश्न चिन्ह लगा रही हैं । इस हिंसा के कृत्य से धर्म का पतन तो हो ही रहा है , देश भर में प्रदूषण भी फैल रहा है । प्राकृतिक आपदाओं का होना भी इसी हिंसा का दुष्परिणाम है । अध्यात्म का अमृत संयमित चित्त में ही ठहरता है । असंयमित और चंचल चित्त फूटी बाल्टी के समान होता है जिसमें आत्म चिंतन – मनन का आध्यात्मिक अमृत ठहरता नहीं हैं । चित्त का स्थिर होना ही संयम है । जिस प्रकार जल के धूल में मिल जाने से कीचड़ हो जाती है किन्तु कीचड़ भी जल से ही साफ होती है । इसी प्रकार चित्त की अस्थिरता से असंयम की कीचड़ पैदा होती है किन्तु वही चित्त स्थिर हो जाए तो असंयम की कीचड़ धोने का कार्य करता है इसलिए चित्त को चैतन्य में ही तन्मय करना चाहिए । संयम अध्यात्म रूपी वैभव की चहार दीवारी है जिसमें धर्म की रक्षा होती है । अध्यात्म और संयम की साधना भारत की आत्मा है । संत तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में लिखा है- ‘ नरतन पाय विषय मन देही , पलटि सुधा ते शठ विष लेही ‘ संयम का जीवन में बहुत महत्व है सामान्यत : वर्तमान जीवन को सुखमय जीवन बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को इन चार प्रकार के संयम का पालन करना चाहिए इन्द्रिय संयम , समय संयम , अर्थ संयम और भाव संयम संयम व्यक्तिगत , पारिवारिक , सामाजिक और राष्ट्रीय स्तर पर भी आवश्यक है , यही कल्याणकारी मोक्ष मार्ग का आधार है । संयम को धारण करने में ही मानव जीवन की सफलता है ।

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